बुधवार, 11 मई 2011

जान हमने भी गंवाई है वतन की ख़ातिर...फ़िरदौस ख़ान

जान हमने भी गंवाई है वतन की ख़ातिर...फ़िरदौस ख़ान


ध्यानार्थ : इस लेख का शीर्षक एक शेअर का मिसरा है... इसलिए लोग लेख पढ़ने से पहले ही इसका ग़लत मतलब निकाल रहे हैं... हैरत तो यह है की लेख पढ़ने के बाद भी लोग शीर्षक पर अटके हैं... हमें लगता है... ब्लॉग गंभीर विषयों के लिए नहीं हैं...

कई लोगों को इस बात की तकलीफ़ है कि हमने मुस्लिम शहीदों का ज़िक्र क्यों किया है... इस मुल्क के लिए अमूमन सभी संप्रदायों और तबक़ों के लाखों लोगों ने कुर्बानियां दी हैं... इतिहास में कितने लोगों के नाम दर्ज हैं...? जिन लोगों के नाम इतिहास में दर्ज नहीं हैं... क्या उनकी क़ुर्बानी...क़ुर्बानी नहीं है...? हम जब शहीदों को खिराजे-अक़ीदत (श्रद्धा सुमन ) पेश करते हैं तो वो सभी शहीदों के लिए होती है... उन अनाम शहीदों के लिए भी...जिनके नाम कोई नहीं जानता...


इस लेख पर एतराज़ करने वाले ईमानदारी से बताएं... कि इस लेख में जिन बातों का ज़िक्र है, क्या वो पहले से यह सब जानते थे...? शायद नहीं... इस लेख का मक़सद यह बताना है कि इस मुल्क में अफ़ज़ल जैसे लोग ही पैदा नहीं हुए... बल्कि अब्दुल हमीद जैसे वतन परस्त भी पैदा हुए हैं...

महापुरुष किसी ख़ास मज़हब या तबक़े के नहीं होते... वो तो पूरी ख़िलकत (मानव जाति) के होते हैं... यह बात अलग है कि जन्म से उनका किसी न किसी मज़हब या तबक़े से ताल्लुक़ होता है... इस लेख को लिखने का हमारा मक़सद यही है कि बच्चे (सभी संप्रदायों और तबक़ों के) ख़ासकर मुस्लिम बच्चे इन महापुरुषों के बारे में जानें... सद्दाम हुसैन उनका आदर्श हो या न हो..., लेकिन अब्दुल हमीद उनका आदर्श ज़रूर होना चाहिए... फ़िरदौस

फ़िरदौस ख़ान
'कुछ लोगों' की वजह से पूरी मुस्लिम क़ौम को शक की नज़र से देखा जाने लगा है... इसके लिए जागरूक मुसलमानों को आगे आना होगा... और उन बातों से परहेज़ करना होगा जो मुसलमानों के प्रति 'संदेह' पैदा करती हैं...

कोई कितना ही झुठला ले, लेकिन यह हक़ीक़त है कि हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने भी देश के लिए अपना खून और पसीना बहाया है. हिन्दुस्तान मुसलमानों को भी उतना ही अज़ीज़ है, जितना किसी और को... यही पहला और आख़िरी सच है... अब यह मुसलमानों का फर्ज़ है कि वो इस सच को 'सच' रहने देते हैं... या फिर 'झूठ' साबित करते हैं...

इस देश के लिए मुसलमानों ने अपना जो योगदान दिया है उसे किसी भी हालत में नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। कितने ही शहीद ऐसे हैं जिन्होंने देश के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर दी, लेकिन उन्हें कोई याद तक नहीं करता। हैरत की बात यह है कि सरकार भी उनका नाम तक नहीं लेती। इस हालात के लिए मुस्लिम संगठन भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं. वे भी अपनी क़ौम और वतन से शहीदों को याद नहीं करते.

हमारा इतिहास मुसलमान शहीदों की कुर्बानियों से भरा पड़ा है। मसलन, बाबर और राणा सांगा की लडाई में हसन मेवाती ने राणा की ओर से अपने अनेक सैनिकों के साथ युध्द में हिस्सा लिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की दो मुस्लिम सहेलियों मोतीबाई और जूही ने आखिरी सांस तक उनका साथ निभाया था। रानी के तोपची कुंवर गुलाम गोंसाई ख़ान ने झांसी की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी। कश्मीर के राजा जैनुल आबदीन ने अपने राज्य से पलायन कर गए हिन्दुओं को वापस बुलाया और उपनिषदों के कुछ भाग का फ़ारसी में अनुवाद कराया। दक्षिण भारत के शासक इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय ने सरस्वती वंदना के गीत लिखे। सुल्तान नांजिर शाह और सुल्तान हुसैन शाह ने महाभारत और भागवत पुराण का बंगाली में अनुवाद कराया। शाहजहां के बड़े बेटे दारा शिकोह ने श्रीमद्भागवत और गीता का फ़ारसी में अनुवाद कराया और गीता के संदेश को दुनियाभर में फैलाया।

गोस्वामी तुलसीदास को रामचरित् मानस लिखने की प्रेरणा कृष्णभक्त अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना से मिली। तुलसीदास रात को मस्जिद में ही सोते थे। 'जय हिन्द' का नारा सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज के कप्तान आबिद हसन ने 1942 में दिया था, जो आज तक भारतीयों के लिए एक मंत्र के समान है। यह नारा नेताजी को फ़ौज में सर्वअभिनंदन भी था।

छत्रपति शिवाजी की सेना और नौसेना के बेड़े में एडमिरल दौलत ख़ान और उनके निजी सचिव भी मुसलमान थे। शिवाजी को आगरे के क़िले से कांवड़ के ज़रिये क़ैद से आज़ाद कराने वाला व्यक्ति भी मुसलमान ही था। भारत की आजादी के लिए 1857 में हुए प्रथम गृहयुध्द में रानी लक्ष्मीबाई की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनके पठान सेनापतियों जनरल गुलाम गौस खान और खुदादा खान की थी। इन दोनों ही शूरवीरों ने झांसी के क़िले की हिफ़ाज़त करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। गुरु गोबिन्द सिंह के गहरे दोस्त सूफी बाबा बदरुद्दीन थे, जिन्होंने अपने बेटों और 700 शिष्यों की जान गुरु गोबिन्द सिंह की रक्षा करने के लिए औरंगंजेब के साथ हुए युध्दों में कुर्बान कर दी थी, लेकिन कोई उनकी कुर्बानी को याद नहीं करता। बाबा बदरुद्दीन का कहना था कि अधर्म को मिटाने के लिए यही सच्चे इस्लाम की लड़ाई है।

अवध के नवाब तेरह दिन होली का उत्सव मनाते थे। नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में श्रीकृष्ण के सम्मान में रासलीला का आयोजन किया जाता था। नवाब वाजिद शाह अली ने ही अवध में कत्थक की शुरुआत की थी, जो राधा और कृष्ण के प्रेम पर आधारित है। प्रख्यात नाटक 'इंद्र सभा' का सृजन भी नवाब के दरबार के एक मुस्लिम लेखक ने किया था। भारत में सूफी पिछले आठ सौ बरसों से बसंत पंचमी पर 'सरस्वती वंदना' को श्रध्दापूर्वक गाते आए हैं। इसमें सरसों के फूल और पीली चादर होली पर चढ़ाते हैं, जो उनका प्रिय पर्व है। महान कवि अमीर ख़ुसरो ने सौ से भी ज़्यादा गीत राधा और कृष्ण को समर्पित किए थे। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की बुनियाद मियां मीर ने रखी थी। इसी तरह गुरु नानकदेव के प्रिय शिष्य व साथी मियां मरदाना थे, जो हमेशा उनके साथ रहा करते थे। वह रबाब के संगीतकार थे। उन्हें गुरुबानी का प्रथम गायक होने का श्रेय हासिल है। बाबा मियां मीर गुरु रामदास के परम मित्र थे। उन्होंने बचपन में रामदास की जान बचाई थी। वह दारा शिकोह के उस्ताद थे। रसखान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्तों में से एक थे जैसे भिकान, मलिक मोहम्मद जायसी आदि। रसखान अपना सब कुछ त्याग कर श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन हो गए। श्रीकृष्ण की अति सुंदर रासलीला रसखान ने ही लिखी। श्रीकृष्ण के हज़ारों भजन सूफ़ियों ने ही लिखे, जिनमें भिकान, मलिक मोहम्मद जायसी, अमीर ख़ुसरो, रहीम, हज़रत सरमाद, दादू और बाबा फ़रीद शामिल हैं। बाबा फ़रीद की लिखी रचनाएं बाद में गुरु ग्रंथ साहिब का हिस्सा बनीं।

बहरहाल, मुसलमानों को ऐसी बातों से परहेज़ करना चाहिए, जो उनकी पूरी क़ौम को कठघरे में खड़ा करती हैं...
जान हमने भी गंवाई है वतन की ख़ातिर,
फूल सिर्फ़ अपने शहीदों पे चढ़ाते क्यों हो...

गुरुवार, 5 मई 2011

धर्मनिरपेक्षता-- उदगम और भारतीय परिवेश में प्रासंगिकता

यह लेख आशुतोष नाथ तिवारी जी ने " हल्ला बोल" पर लिखे हैं, हमें लगा की यह एक गैर विवादित जानकारी भरा लेख है, लिहाजा बिना आशुतोष जी की अनुमति से यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ, यदि BBLM के संचालको को आपत्ति हो तो हटा सकते हैं। ...............

धर्मनिरपेक्षता, और सेकुलर श्वान : आयातित विचारधारा का भारतीय परिवेश में एक विश्लेषण:

धर्मनिरपेक्षता, और सेकुलर शब्द अक्सर सुनने में आता है हमारी रोजमर्रा की जीवनचर्या में..आइये प्रयास करते हैं इसका उदगम और भारतीय परिवेश में प्रासंगिकता.
इतिहास और उदगम: धर्मनिरपेक्षता शब्द का जनक जॉर्ज जेकब हॉलीयाक को माना जाता है,जो की मूलतः एक व्याख्याता और संपादक था..


ये राबर्ट ओवेन की विचारधारा से प्रभावित था जो समाजवाद के संस्थापक सदस्यों में से एक थे..राबर्ट ओवेन के विचार से
" सभी धर्म एक ही हास्यस्पद परिकल्पना पर आधारित हैं.जो मनुष्य को एक कमजोर मूर्ख पशु,उग्रता से पूर्ण धर्मांध व्यक्ति,एक कट्टरवादी या घाघ पाखंडी बनाती है"

अब सेकुलर शब्द को गढ़ने वाले व्यक्ति के गुरु की विचारधारा ये थी तो शिष्य के सिधांत की स्वतः ही परिकल्पना की जा सकती है..आइये एक तथ्य और जान ले सेकुलर शब्द गढ़ने वाले हॉलीयाक के गुरु के बारे में अपने इस धर्म विरोध सिधांत के कुछ वर्षों बाद ओवेन ने आध्यात्म की राह पकड़ ली..


मुझे नहीं लगता की आध्यात्म किसी धर्म का विरोध सिखाता है क्यूकी यदि आध्यात्म बुढ़ापे का दर्शन है तो धर्म जवानी का ज्ञान..

जेकब हॉलीयाक ने १८४२ में ईशनिंदा के लिए ६ महीने हवालात में गुजारे..हवालात से बाहर आ के, इसने द मूवमेंट और द रिजनर नामक पत्र निकालना शुरू किया और इन पत्रों के मूल में था इसी धर्म विरोध... हेलियक ने इस पत्र के माध्यम से एक नई व्योस्था का आह्वान किया जो विज्ञान और तर्कों पर आधारित हो..इस व्यवस्था का नामकरण उसने "सेकुलरिज्म"किया जिसका भारतीय समानार्थी रूप हम "धर्मनिरपेक्षता" प्रयोग करते हैं..शाब्दिक रूप में इसकी कुछ परिभाषाएं हैं..

१ वो जीवन पद्धति जिनका आधार आध्यात्मिक अथवा धार्मिक न हो..
२ धार्मिक व्योस्था से मुक्त जीवन शैली..
३ वो राजनैतिक व्यवस्था जिसमें सभी धर्मो के लोग सामान अधिकार के पात्र हो.प्रसाशन एवं न्याय व्यवस्था निर्माण में धार्मिक रीती रिवाजों का हस्तक्षेप न हो..
४ ऐसी व्योस्था जो किसी धर्म विशेष पर आधारित न हो और शासनिक नीतियों का नियमन किसी धर्म विशेष को ध्यान में रख कर न किया जाए..

परिभाषा से और इतिहास से स्पष्ट है की इस शब्द का जन्म ही धर्म विरोध के स्थानीय और समसामयिक कारणों के फलस्वरूप हुआ..इसे हम एक जीवन पद्धति और समाज पद्धति के रूप में कैसे स्वीकार लें???

भारतीय परिवेश में एक विश्लेषण:इस शब्द की उत्पत्ति ईसाई धर्म के खिलाफ हुई थी ..ये मेरे समझ के बाहर है की ये हिन्दू बहुल हुन्दुस्थान में कैसे और क्यों लागू किया गया..और शायद इस परिकल्पना को मूर्त रूप देते समय क्या हमारे संविधान निर्माताओं ने ये नहीं सोचा की, भारत ऐसा देश है जहा हर १० किलोमीटर पर पानी का स्वाद और ५० किलोमीटर में पूजा पद्धति बदल जाती है.जिन्होंने सदियों से धार्मिक व्योस्थाओं पर आधारित समाज और कानून का पालन किया है वो अचानक सेकुलर कैसे हो जाएँगे..और अपने ही संविधान के दूसरे भागों में मुह की खायी हमारे नीति निर्माताओं ने..
सेकुलरिज्म का मतलब है की "ऐसी व्योस्था जो किसी धर्म विशेष पर आधारित न हो और शासनिक नीतियों का नियमन किसी धर्म विशेष को ध्यान में रख कर न किया जाए."जी नहीं हमारा संविधान एक तरफ भारत को सेकुलर कहता है और दूसरी ओर हिन्दू विवाह अधिनियम लागू करता है..एक तरफ सेकुलर कानून है जिसमें मुश्लिम की शादी मुस्लिम धार्मिक कानूनों और तलाक ३ बार तलाक तलाक तलाक बोलने से होता है.. जिस सेकुलरिज्म का मूल धर्म विरोध था, वह अब धर्म के घालमेल से क्या साबित करना चाहता है..विरोधाभास बार बार यही दर्शाता हैं की सेकुलर जैसी कोई विचारधारा हमारे समाज में अवस्थित नहीं हो सकती, हाँ विशेषकर राजनितिक लोगों के धर्म की सेकुलर खेती में खाद पानी का काम करती है..
भारतीय परिवेश के लिए अक्सर कई अलग अलग विद्वान अलग अलग राय देते हैं इस मुद्दे पर कोई कहता है की इसका मतलब धर्मविरोध नहीं है, इसका अर्थ है "सभी धर्मों की समानता"..तो ये तो हमारे मूल अधिकारों में भी है, समानता का अधिकार क्या जरुरत है सेकुलर तड़का लगाने की,और हम उस सेकुलरिज्म को सर्व धर्म सम्भाव के लिए सीढ़ी मानतें है जिसकी उत्पत्ति ही धर्म विरोध के धरातल पर हुई थी..
तो क्या हमारी सदियों पुरानी हिंदुत्व की अवधारणा इस आयतित विचारधारा के सामने नहीं ठहरती,जिसके मूल में सर्व धर्म सम्भाव और सहिष्णुता है???हिंदुत्व ने आज तक सभी धर्मों को स्वीकार किया और स्थान दिया सम्मान दिया..
सेकुलरिज्म नामक बिदेशी बालक ने अभी जन्म लिया किलकारियां भरने की उम्र गयी नहीं की गुलाम मानसिकता और सत्ता और कानून के मठाधिशों ने इसका राज्याभिषेक कर इसे युगों युगों पुरानी संस्कृति और विचारधारा के सामने खड़ा कर दिया...
वस्तुतः अभी सेकुलरिज्म की परिभाषा ही विवादित है हर व्यक्ति हर संस्थान अपने तरह से विश्लेषण करता है..जैसे किसी चारित्रिक पतन के गर्त में जा चुकी स्त्री के बच्चे के पिता के नाम के विश्लेषण में हम सबकी अपनी अपनी राय होगी..हमारे भारतीय राजनैतिक परिवेश में इस विवादित बच्चे को गोद ले कर सबने अपनी अपनी रोटियां सकने का प्रबंध कर लिया..
भारत के परिवेश में गर्त की पराकाष्ठा ये है की सेकुलर होने के लिए आप को धर्म विरोधी नहीं होना है अगर आप हिन्दू विरोधी हैं तो आप सेकुलर है अगर आप मुश्लिम धर्म के समर्थक हैं तो आप सेकुलर हैं..राजनैतिक विचारधारों की बात करे तो एक धड़ा है जो हिन्दू समर्थन के नाम का झंडा लिया है और वो साम्प्रदायिक है...चलिए मान लिया की वो धड़ा साम्प्रदायिक है ..तो वो लोग जो मुश्लिम धर्म का समर्थन कर रहें है वो कैसे साम्प्रदायिक नहीं है...
क्या हज में सब्सिडी देना साम्प्रदायिकता के दायरे में आता है??क्यूंकि ये तो सेकुलरिज्म के मूल सिधांत का उलंघन हुआ जो कहता है की "प्रसाशन एवं न्याय व्यवस्था निर्माण में धार्मिक रीती रिवाजों का हस्तक्षेप न हो.."
लेकिन छुद्र राजनैतिक स्वार्थ के वशीभूत हो कर इसे सेकुलरिज्म कहते हैं हमारे व्योस्था चलाने वाले और हिन्दू समारोह में शिरकत करना भी साम्प्रदायिकता का द्योतक लगता है इन सेकुलर श्वानो को..
सेकुलर श्वान शब्द मेरे मन में एक प्राणी को देख कर आया जिसका मुख एकलव्य ने अपने वाणों से इस प्रकार बंद कर दिया था की वो अपनी प्राकृतिक आवाज निकलने में असमर्थ हो गया.. अब एकलव्य तो आज के युग में पैदा नहीं होते और इन श्वानो का मुख हर समय तुष्टिकरण और हिंदुविरोध की नैसर्गिक आवाज भो भो भो भो निकालता रहता है सत्ता,पैसे और प्रचार की हड्डियों के लिए..सेकुलर श्वान सबसे ज्यादा हिन्दू धर्म में पैदा हो गएँ हैं और इस का कारण हमारी गुलाम मानसिकता अपने आप को हीन समझने का जो प्रबंधन मैकाले ने किया था उस हीन भावना के बबूल रूपी वृक्ष को आज तक खाद पानी दे रहें हैं ये सेकुलर श्वान.
हम अपनी गुलाम मानसिकता की अभिव्यक्ति के लिए सेकुलर बनने में किस कदर खोये हैं..
एक उदहारण अमेरिका का देना चाहूँगा "in the god we trust " का जी हाँ ये शब्द मिलेगा आप को अमेरिका के डालर पर लिखा हुआ जिस देश की जी हुजूरी हमारे व्योस्था के महानुभाव भी करते हैं..अमेरिका के सिक्के और डालर पर लिखा ये शब्द उनके धार्मिक ग्रन्थ बाइबिल से लिया गया है..इस शब्द का विरोध भी हुआ अमेरिका में मगर वहां के सरकार ने इन लोगों के सामने न झुकते हुए अपनी संस्कृति से समझौता नहीं किया.. और आप इसे पढ़ सकते हैं डालर पर "in the god we trust:" के रूप में लिखा हुआ..
मगर क्या ये संभव है की भारत के सिक्के पर या नोट पर जय श्री राम लिखा जा सके???.यहाँ तो दूरदर्शन के चिह्न सत्यम शिवम् सुन्दरम में शिव का नाम आने के कारण तुस्टीकरण करते हुए बदल दिया गया..ऐसे कई उदहारण मिल जाएँगे..यहाँ वही गुलाम मानसिकता इस्तेमाल हुई जो मैकाले ने दी थी की अपने संस्कार और धर्म को गौण मानो और विरोध करो:.
अभी भारतीय परिवेश में ये सेकुलरिज्म का सिधांत अपरिपक्व सा महसूस होता है और जिसका इस्तेमाल हर तीसरा ब्यक्ति अपनी उल जलूल मानसिकता हो सही ठहराने के लिए करता है..सेकुलरिज्म उस तर्क और विज्ञान को आधार मानता है जो बार बार अपनी ही परिकल्पना को संशोधित करता रहता है..और फिर कुछ दिनों बाद उसे उन्नयन के नाम पर पलट देता है..वस्तुतः ये विज्ञान और धर्म की पूर्णकालिक द्वन्द है जिसे सेकुलरिज्म का नाम दे कर अपनी राजनैतिक विचारधारा को सही ठहराने की सीढ़ी बना साम्प्रदायिकता और सांप्रदायिक समाज की परिकल्पना की जाती है..


मेरे समझ से सेकुलर श्वानो को हिंदुत्व और गीता का अध्ययन करना चाहिए वो उन्हें एक सही,प्रमाणिक .सांस्कृतिक समाज एवं जीवन व्योस्था देने में समर्थ है जो उनके तर्क और विज्ञान के दृष्टिकोण से हर जगह विशुद्ध और प्रमाणिक है ..क्यूकी हिंदुत्व की अवधारणा सनातन है और इसका इतिहास ने राम और कृष्ण पैदा किये हैं न की मैकाले और डलहौजी..








आइये गर्व से कहें की हम हिन्दुस्थान में रहतें है और हम सेकुलर नहीं है क्यूकी हमने विश्व को समाजशास्त्र से लेकर आध्यात्म की शिक्षा दी है ...हम सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से सदियों से आत्मनिर्भर और हमें नहीं जरुरत है ऐसी सड़ी हुई आयतित अंग्रेजी विचारधारा की
जिसमें हमारे मूल आदर्शों की तिलांजलि देने रणनीति है.

जय हिंद जय हिन्दुस्थान